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________________ ४४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६१. मणुस० ज० बं० पंचिंदि०-मणुसाणु०-तस-बादर-पत्ते० णिय० । तं तु० । सेसं तिरिक्रवगदिभंगो । एवं मणुसाणु० । १२. एईदि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०--तिरिक्वाणु०-थावर-दूभ० अणादें णियमा० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । पर०-उस्सा०-आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। बादर-मुहुमपज्जत्त०-अपज्ज०-पत्ते-साधार०-थिरादितिण्णियुग० सिया० । तं तु० । एवं थावर० । ६३. बेइंदि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड-असंप -तिरिक्वाणु०-तस-बादर-पत्ते ०दूभ०-अणादें णिय० । तं तु० । ओरालि०--तेजा--क०--ओरालि०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । पर०-उस्सा०-उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ० । अप्पस०-पज्जत्तापज्ज०-थिराथिर ०-मुभासुभ०-दूभग०-दुस्सर०-जस०अजस० सिया० । तं तु० । एवं तीइंदि०-चदुरिंदि०।। wwrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrm ६१. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चोन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर और प्रत्येकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १२. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। परघात, उच्छवास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६३. द्वीन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, स, बादर, प्रत्येक, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित घृद्धिरूप होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। परघात, उच्छ्वास और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, यशःकीर्ति और अयशाकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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