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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-तिरिक्खाणु०- पर०-उस्सा०-आदावुज्जो०-तस०४-तित्थ० सिया. अणंतगुणब्भ०। तेजा-क०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णियअणंतगुणब्भ० । एवं असुभ-अजस० । ७८. तित्थय० ज० बं. देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु०बेउचि० अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०.४-अथिर-असुभसुभग-सुस्सर-आदें-अजस०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भहियं बंधदि। ७६. णिरंएसु आभिणिबोधि० ज० अणु० बं० चदुणाणा० णिय० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । एवं पंचतराइ० । णिशाणिदाए ज. बं० पचलापचला-थीणगि० णि । तं तु.। छदसणा० णि. अणंतगुणब्भः। एवं पचलापचला-थीणगि। णिदा० ज० बं० पंचदंस० णितं तु०। एवमण्णमण्णस्स । तं तु०॥ वेदणीय-आउग-गोद० ओघं । जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, त्रस चतुष्क और तीर्थक्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयशःकीतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ७८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पश्चन्द्रिय जाति, वैकियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माणका नियमसे बन्ध होता है जो अनन्तगुणा अधिक बाँधता है। ह. नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञातावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँच अन्तरायका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाप्रचला और स्स्यानागृद्धिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागशा भी बन्ध करता है। यदि वह अजघन्य अनुभागका बन्ध करताहै,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। कह दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्राके जघन्य अनुभागका वध करनेवाला जीव पाँच दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजवन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्प जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीय शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जवन्य अनुभागकाभी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । वेदनीय, आयु १. श्रा० प्रती श्रादायुजो० तित्थ० इति पाठः। २. श्रा. प्रतौ थिणगि०३ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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