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________________ २०४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अज. अह-बा० । तेजा.-[क०-] पसत्य०४-अगु०३-पज०-पत्ते--णिमि० ज० अट्टतेरह०, अज० अट्ट चॉइह० सव्वलो० । ओरा. ज. अह--णवों, अज. अह. सव्वलो । उज्जो०-जस० ज० अज. अहणव० । बादर० ज० अज० अह-तेरह । मुहुम०-अपज्जा-साधार० ज० अज० लो० असं सव्वलो। ३६५. णqसगे पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक-तिरिक्ख.. अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-आदा०-णीची०-पंचंत० ज० खेत्त०, अज० सव्वलो। सादादिदंडओ ओघ । इत्थि०-णस-पंचिं०-ओरा०--तेजा०--क०--ओरा०अंगो० बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क. अगरुलपत्रिक. पर्या प्ति, प्रत्येक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम माठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशकीतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-पुरुषवेदी जीवोंमें स्पर्शन प्रायः स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। जहाँ थोड़ा-बहुत अन्तर है भी उसे स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ-स्त्रीवेदी तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध केवल मनुध्यिनियाँ ही करती हैं, इसलिए वहाँ इसकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। किन्तु पुरुषों में देव भी इसका बन्ध करते हैं, इसलिए यहाँ इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहकर भी अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार स्त्रीवेदी जीवोंसे यहाँ पञ्चन्द्रियजाति और अस प्रकृतिके स्पर्शनमें भी अन्तर घटित कर लेना चाहिए। ३६५. नपुंसकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकपाय, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, आतप, नीचगोत्र भोर पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माण १. ता. श्रा. प्रत्योः श्रादा० उप० णीचा इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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