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________________ २३२ महागंधे अणुभाग भाहियारे अत्थि । ० ४४१. वेडव्वि० रइगभंगो । एवं वेडव्वियमि० । आहार० - आहारमि० सव्वतिव्वाणु ० साद० । जस० उच्चा० अनंत० | देव० अत० । कम्म० अनंत० | तेज० अनंत | वेडव्वि० अनंत० । केवलणा०--केवलदंस० श्रसाद० - विरियंत ० चत्तारि वि अनंतगु० । संजलणलोभो अनंत० । माया विसे० । कोधो विसे० । माणो विसे० । 1 आभिणि० - परिभोग० दो वि तु० अांत० । चक्खु० अनंत० । सुद०--अचक्खु०भोगंत तिणि वि तु० अनंत० । अधिणा० - ओधिदं० - लाभत० तिण्णि वि. तु० अनंत | मणपज्ज० - दाणंत० दो वि तु० अनंत० । पुरिस० अनंत० । अरदि० अत० । सोग० अनंत० । भय० अनंत० । दुगुं० अनंत० । णिद्दा० अनंत० । पचला० अनंत० । अजस० अनंत० । रदि० अनंत० । हस्स० अनंत० | देवाउ० अत० । एवं मणपज्ज० -संज० - सामाइय- च्छेदो ० - परिहार० । एदेसु आहारसरीरं श्रत्थि । संजदासंजद० परिहारभंगो । णवरि पच्चक्खाण०४ अत्थि । ० शरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। शेष भङ्ग पचन्द्रियतिर्यों के समान है । इस मार्गणा में इतना ही अल्पबहुत्व है । ४४१. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणाहीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन क्रोधक अनुभाग विशेष दीन है । इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे अतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अयश:कीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवों के जानना चाहिए। इनमें आहारकशरीर है। संयतासंयत जीवों का भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें प्रत्याख्यानावरण चार हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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