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________________ अप्प बहुग परूवणा २३१ गदि० अनंत० । कम्मइ० अनंत । तेज० अणंत० । वेडव्वि० अत० | मिच्छ● अत० । सेसं ओघं याव णिरयग० अनंतगु० । मणुसग० अांतगु० । ओरालि० अांतगु० ! तिरिक्ख० अनंतगु० । सेसं ओघं याव हस्स० अनंतगु० । णिरयाउ ० अनंतगु • ० । देवाउ० अनंतगु० । मणुसाउ० अनंतगु० । तिरिक्खाउ० अनंतगु० । एवं पंचिदियतिरिक्ख ०३ - मणुस ०३ ! ४३६. पंचिं० तिरि०अपज्जत्तगेसु सव्वतिव्वाणुभागं मिच्छ० । सादा० अनंतगु० ! जस० - उच्चा० दो वि तु० अनंतगु० । मणुसग० अनंत० । कम्मर अनंत० । तेज • अनंत० । ओरा० अनंत० । केवलणा ०-केवलदं० - असादा०-विरयंत० चत्तारि वि तु० अनंतगु० । उवरि ओघं याव मणुसाउ० अनंतगु० । तिरिक्खाउ० अनंत० । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं सव्व एइंदि ० - सव्वविगलिंदि ० पंचकायाणं च । ० I ४४०. देवाणं णिरयभंगो । ओरालि० मणुसभंगो । ओरा०मि० सव्वतिव्वाणुभा० साद० । जस० - उच्चा० दो वि० अनंत० । देवग० अनंत० । कम्मइ० अनंत० । तेज० अनंत० । वेउच्वि० अनंत० । मिच्छ० अनंत० । सेसं पंचिंदि ० तिरि० भंगो | के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा ही है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा दीन है। इससे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। शेष भङ्ग नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इस स्थानके प्राप्त होने तक श्रोध के समान है । आगे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा दीन है। इससे तिर्यञ्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । शेष भङ्ग, हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इस स्थानके प्राप्त होने तक श्रधके समान है। आगे नरकायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्य का अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणादीन है । इसी प्रकार चन्द्रयतिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकके जानना चाहिए । ४३६. पञ्च ेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्तकों में मिध्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है । इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। आगे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इस स्थानके प्राप्त होनेतक ओघ के समान भङ्ग है । इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । ४४०. देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भन है । दारिक मिश्रकाययोगी जीवों में सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यश:कीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनु भाग अनन्तगुणहीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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