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महाधे अणुभागबंधाहिया रे
वज्जरि० । साणं ओघं आहारदुगं तित्थयरं च वज्ज । णवरि देवगदि० उ० बं० जस० णिय० । तं तु ० । एवं सव्वाणं पसत्थाणं ।
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५६. आभिणि० - सुद० -ओधि० सत्तण्णं क० उक्तस्स ० अणुद्दिसभंगो' । अप्पसत्थवण्ण० उ० बं० मणुसग०- देवग०-ओरालि० - वेडव्वि० [ओरालि० अंगो० वेडव्वि०अंगो०-] वज्जरि०-दोआणु ० - तित्थय • सिया० अनंतगु० । पंचिंदियादिपसत्थाओ णिय० अनंतगु० । अप्पसत्थगंध ० ३ - उप० अथिर-असुभ अजस० णिय० । तं तु ० । एवं एदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । सेसं ओघं । एवं ओधिदंस० - सम्मादि० - खड्ग ०-वेदग०-उवसम०सम्मामिच्छादि ० ।
५७. मगपज्जव ० खइयाणं ओघं । सेसाणं आहारका० भंगो। एवं संजद- सामाइ ०छो० । परिहारे आहारकायजोगिभंगो । णवरि आहारदुगं देवगदिभंगो | णवरि
होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है । इसी प्रकार औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष प्रकृतियों का भङ्ग
के समान है । किन्तु आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़ कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव यशः कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु उसका उत्कृष्ट बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट बन्ध भी करता हैं । यदि अनुत्कृष्ट बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हार्निको लिये हुए होता है। इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यता से सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
५६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका सन्निकर्षं अनुदिशके समान है । अप्रशस्त वर्णके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक, आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो श्रानुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । अप्रशस्त गन्ध आदि तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता | यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियों का परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव इन्हीं में से शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। शेष कथन ओधके समान हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए । ५७. मनः पर्ययकज्ञानी जीवों में क्षायिक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्राहारकाययोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवों के जानना चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में आहारकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग देवगतिके समान है। इतनी और विशेषता है कि १. ता० प्रतौ पसत्थाणं पसत्थारणं १ इति पाठः ! २ श्रा० प्रतौ उक्कस्स श्रक्कत्सभंगो इति पाठः ।
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