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________________ २५ बंधसण्णियासपरूवणा संजदेसु अप्पसत्याणं तित्ययरं ण बंधदि । एवं सव्वाणं । सुहुमसंप० अवगतवेदभंगो । संजदासजद० परिहारभंगो। णवरि अप्पणो पगदीओ णादव्वाओ। असंजदे मदि भंगो। णवरि तित्थयरं० उ० बं० देवगदि०४ णि० बं०। तं तु । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो । ५८. किण्णाए सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदिदंडओ तिरिक्खगदिदंडओ एइंदियदंडओं' णqसगदंडगभंगो। मणुसगदिदंडओ गिरयो । देवगदि० उ० बं० वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० णिय० । तं तु । तित्थ० सिया। तं तु० । सेसाणं पसत्थाणं अप्पसत्थाणं च णिय० अर्णतगु० । एवं देवगदि०४-तित्थ० । सेसं ओघं । ५६. णील-काऊणं सत्तण्णं क. ओघं । णिरय० उ० ब० णिरयाणु० णिय। तं तु० । सेसाओ पगदीओ णिय० अणंतगु०। एवं णिरयाणु । तिरिक्खग० उ० बं० हुंडसंठाणादि० णिरयोघं । सेसाणं किण्णभंगो । काऊए तित्थ० मणुसगदिभंगो । संयत जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके साथ तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार सबके जानना चाहिए । सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीयोंमें परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। असंयत जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तौथङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगतिचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो नियमसे छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भंग है। ५८. कृष्णलेश्यावाले जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिदण्डक, तिर्यश्चगतिदण्डक और एकेन्द्रिय जाति दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेददण्डकके समान है। मनुष्यगतिदण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। तीर्थङ्करक प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वहाट छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। शेष प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार देवगति चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए । शेष भङ्ग ओघके समान है। ५६. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह. उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके हुण्डसंस्थान आदिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्ण लेश्याके समान है । कापोत लेश्यामें तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। १. ता० प्रतौ णिरयगदिदंडो:एइंदियदंडो इति पाठः । th Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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