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महाणुभाग धाहियारे
पसत्थ०-[-सुभग-] सुस्सर-आदें- उच्चा० तिणिप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० ऍकतीसं ० दे० । मणुसाउ० देवभंगो । देवाउ० मणजोगिभंगो । मणुसग०--ओरा०ओरा० गो०- मसाणु० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवडि० ज० ए०, उ० तेतीसं० दे० | अवत्त० णत्थि अंतरं । देवगदि०४ तिणिप० ज० ए०, उ० तेत्तीस • सादि० । अवत्त० ज० अट्ठारस० सादि०, उ० तेतीसं० सादि० । आहारदुगं भुज ० - अप्प ० -[ अवहि० ] ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त० ज० उ० अंतो ० । वज्जरि० भुज ०-अप्प ० ज० ए०, उ० अंतो० । अवद्वि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । अवत्त० ज० तो०, उ० ऍक्कत्तीस० दे० । तित्थ० तिणिप० णाणा० भंगो । अवत्त • त्थि अंतरं । [ भवसि० ओघं । ] अब्भवसि० मदि० भंगो ।
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४८६. खइग० पंचणा ० छदंस ० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दु० पंचिं०-- तेजा० क ०समचदु०-० - वण्ण०४ - अगु०४ - पसत्थ० - तस४ - सुभगं - सुस्सर - आदे० - णिमि० - तित्थ ०उच्चा०-पंचंत० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवद्वि० ज० ए०, अवतं० ज०
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काल नहीं है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुका भङ्ग देवों के समान है । देवायुका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वर्षभनाराच संहननके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । तथा अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । भव्यों में ओघ के समान भन है । अभव्यों में मत्यज्ञानी जीवों के समान भङ्ग है ।
४८६. क्षायिकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पच ेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुager, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य
१. श्रा० प्रतौ ज० ए० उ० तो ० इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ पसस्थ० सुभग इति पाठः । ३. आ० प्रतौ ए० उ० श्रबच० इति पाठः ।
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