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________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो २७३ अंतो०, ७० तेत्तीसं० सादिः । एवं साददंडओ च । गवरि अवत्त० ज० उ० अंतो। अहक० दोपदा० ओघं । अवहि-अवत्त० णाणभंगो। मणुसाउ० देवभंगो । देवाउ० मणुसि०भंगो। मणुसगदिपंच० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ. अंतो। अवहि० ज० एक, उ० तेत्तीसं० दे० । अवत्त० णत्थि० अंतरं । देवगदि०४-आहारदुगं तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेतीसं० सादि। ४८७. वेदगस० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज--पुरिस भय-दु०-पंचिं०-तेजा.. क०-समचदु०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-मुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा०पंचंत. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० छावहि० देसू०। साददंडओ णाणाभंगो । णवरि अवत्त० ज० उ० अंतो'। अहक० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पुवकोडी दे० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि। दोआउ० भुज०--अप्प० ज० ए०, अवत० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि०। अवहि० णाणाभंगो। मणुसगदिपंच० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी सादि० अंतोमुहुत्तं । अवहि० ज० ए०, उ. छावहि० देसू० । अवत्त० ज० पलिदो० सादि०, अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ठ अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायोंके दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यायुका भक्त देवों के समान है। देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियों के समान है। मनुष्यगतिपश्चकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेनीस सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। ४८७. वेदकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा,पश्चन्द्रियजाति, ते जसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क,अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपद का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। सातादण्डकका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अाठ कपायों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवस्थितपदका भङ ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । दो आयुओंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अस्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक एक पूर्वकोटि है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर १. ता. श्रा० प्रत्योः णयरि अटक० ज० उ. अंतो०, ति पाठः। २. श्रा० प्री ए. ७० अक्त. इति पाठः। Jain Education International 34 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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