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________________ २७४ महापंधे अणुभागबंधाहियारे उ० तेतीसं० सादि० । देवगदि०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादिः । अवढि० णाणा मंगो। अवत्त० ज० पलिदो० सादि०, उ. तेत्तीसं० सादिः । आहारदुगं भुन० अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेतीसं० सादि० । अपहि० जाणो भंगो । तित्य० ओघं । णवरि अवतः पत्थि अंतरं । ४८. उवसम० पंचणाo--छदसणा०-चदुसंज०--पुरिस०--भय-दु०--मणुस.. देवग-पंचिं०-चदुसरीर--समचदु०-दोअंगो०-वज्जरि०-वण्ण०४-दोआणु --अगु०४पसत्य-तस-४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्य०-उच्चा०-पंचंत. भुज०-अप्प०अवहि० ज० ए०, उ० अंतो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादासाद०-अहक०-चदुणोक०आहारदुग-थिरादितिण्णियु० तिण्णिपदा धुवियाणं भंगो। अवत्त० ज० उ० अंतो। ४८६. सासणे धुवियाणं तिण्णिपदा ज० ए०, उ० अंतो० । सेसाणं पि एसेव भंगो। णवरि अवत्त० पत्थि अंतरं । सम्मामि० धुविगाणं तिण्णिपदा० ज० ए०, उ. अंतो। एवं सादादीणं पि। गवरि अवत्त० ज०१० अंतो । मिच्छादि० मदि०भंगो। ४६०. सण्णी० पंचिंदियपजसमंगो। असण्णीम धुवियाणं भुज०-अप्प. ज. एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भा ज्ञानावरणके समान है। तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। ४८. उपशमसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरलसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्करः, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय; चार नोकपाय, आहारकद्विक और स्थिर आदि तीन युगलके तीन पदोंका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ४८६. सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भी यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सम्यग्मिध्यादृष्टिमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूतं है। मिथ्याष्टियांका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। ४६०. संझी जीवोंमें पञ्चन्द्रिय पयप्तिकोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली १. ता. प्रतौ दि० उ० उ० (१) तेत्तीसं इति पाठः। २. गस्थि अंतः । देवसम० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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