SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुअं ३२३ विसे० | मिच्छ० ओरालि० सेसाणं च ओघं । विभंगे धुविगाणं मदि० भंगो । मिच्छ०देव० - ओरालि० - वेउ०- वेउ० अंगो०- देवाणु० - पर० - उस्सा० चादर-पत्र ०-पत्ते० सव्वत्थो ० अवत्त० । अवहि० असं० गु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । सेसं ओघं । 0 ५५८. आभिणि० - सुद० -अधि० पंचणा०छदंस० - बारसक० पुरि०-भय-दु० - दोगदिपंचिं ० - चदुसरीर - समचदु० - दोअंगो० - वञ्जरि ० - वण्ण ०४ - दोआणु ० - अगु०४ - पसत्थ०तस ०४ - सुभग- सुस्सर - आदें ० - णिमि० - तित्थ ० - उच्चा० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । अवद्वि० असं०गु० । अप्प असं० गु० | भुज० विसे० । सादासाद० चदुणोक ०. देवाउ० - थिरादितिष्णियु० ओघं । मणुसाउ० - आहार०२ मणुसि० भंगो । एवं ओधिदं० सम्मा०- खड्ग ०-वेदग० - उवसम० । णवरि खड्गस० दोआउ० आहारसरीरभंगो । उवसम० आहार ०२ - तित्थ० मणुसि० भंगो | मणपञ्जव • ओधिभंगो । वरि संखेज कादव्वं । एवं संजद ० । ५५९. सामाइ० - छेदो० पंचणा० - चदुदंस० - लोभसंज० उच्चा० - पंचत० सव्वत्थो ० अव●ि | अप्प० संजगु० । भुज० विसे० । सेसं दोदंस० - तिण्णिसंज० - पुरिस०भय-दु० सव्वत्थो० अवत्त० । उवरि मणपञ्जवभंगो । एवं परिहार० । णवरि धुविगाणं भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व और औदारिकशरीर तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । मिथ्यात्व, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, बैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष भङ्ग ओके समान है । ५५८. आभिनिबधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आंगोपाल, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, देवायु और स्थिर आदि तीन युगलका भङ्ग ओघके समान है । मनुष्यायु और आहारकद्विकका भङ्ग मनुष्य नियोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में दो आयुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है तथा उपशमसम्यग्दृष्टियों में आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । मन:पर्ययज्ञानियोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए । ५५९. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभसंज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष दो दर्शनावरण, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। आगे मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार परिहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy