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________________ ३०२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५२७. मदि०-सुद० धुविगाणं भुज-अप्प०-अवहि० सव्वलो । सेसं ओघं । णवरि देवगदि-देवाणु० तिणिप० पंचचों । अवत्त० खेत्त० । ओरालि. तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० ऍकारह । वेउ०-वेउ अंगो० तिण्णिप० ऍकारह० । अवत्त. खेत्तः । विभंगे धुविगाणं तिण्णिप० अह० सव्वलो० । सेसं पंचिंदियभंगो । णवरि वेउ०छ० मदि०भंगो । ओरालि० अवत्त० खेत्त०। ५२८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदंस०-अहक०-पुरिस०-भयदु०-मणुस-पंचिंदि०-ओरा०--तेजा०-०-समचदु०-ओरा०अंगो०-बजरि०मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आवश्यक समझकर यहाँ यह प्रासंगिक स्पष्टीकरण किया है। ५२७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिकशरीरके तीन पदो के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकआङ्गोपाङ्गके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विभङ्गज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रियों के समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक छहका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवों के समान है। तथा औदारिकशरीरके अवक्तव्यका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-जो तिर्यञ्च और मनुष्य देवों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके देवगतिद्विकका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्ध सम्भव है। किन्तु यह सहस्रार कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करनेवालेके ही होता है, आगेके देवों में यह समुद्घात करनेवालेके नहीं; क्योंकि आगेके देवों में ऐसे मनुष्य और तिर्यञ्च ही मारणान्तिक समुद्घात करते हैं जो विशुद्ध परिणामवाले होते हैं। अतः इनके इन पदों का स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। तथा देवों में मारणान्तिक समुद्घातके समय देवगतिद्विकका नियमसे बन्ध होता है, अतः इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सभी एकेन्द्रिय जीव औदारिकशरीरका नियमसे बन्ध करते हैं। अतः इसके तीन पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य सासादनमें आकर मरते हैं और विग्रहगतिमें औदारिकशरीरका अवक्तव्यबन्ध करते हैं, उनके अवक्तव्य बन्धका स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजप्रमाण उपलब्ध होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। देवगतिद्विकके समान वैक्रियिकशरीरद्विकका सब पदों की अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसमें नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवालों का तीन पदों की अपेक्षा कुछ कम छह राज स्पर्शन और मिला लेना चाहिए । इसी कारणसे यहाँ इनके तीन पदों की अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बट चौदह राजूप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५२८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह पर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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