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________________ १२४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणंतगु० । तिण्णिआउ०-दोगदि-दोजादि-छस्संठा०--छस्संघ०--दोआणु०-दोविहा०तस-थावर-थिरादिछयुग०-दोगो० सिया० । तं तु०। एवं असाद०-थिरादितिण्णियुग० । इत्थि० ज० बं० णीलभंगो । णस०-दोआउ० देवभंगो।। ३०२. देवाउ० ज० बं० सादा०-थिर-सुभ-जस० णि । तं तु० । मिच्छादिहिसंजुत्ता कादव्वा । सेसं णि. अणंतगु०। ३०३. देवगदि ज. बं. पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०--मिच्छ०-सोलसक०इत्थि०-अरदि-सोग-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । वेउवि०-वेउवि० अंगो०देवाणु० णि । तं तु० । णामाणं सत्थाणभंगो। सेसं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि० । णवरि णामाणं सहस्सारभंगो । देवगदि०४ तेउभंगो । णवरि पुरिस० धुवं० । ३०४. मुक्काए खविगाणं ओघं । सादादिचदुयुग० पम्मभंगो। देवगदि०४ पम्मभंगो । सेसं णवगेवज्जभंगो । पूर्वी, तप, उद्योत और तीर्थङ्करका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, दो गति, दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी नन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात सातावेदनीयके समान असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन यगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग नीललेश्याके समान है। नपुंसकवेद और दो आयुका भङ्ग देवोंके समान है। - ३०२. देवायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सातावेदनीय, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। किन्तु इन्हें मिथ्यादृष्टिसंयुक्त करना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। ३०३. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। शेष भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। इसी प्रकार अर्थात् पीत लेश्याके समान पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग सहस्त्रार कल्पके समान है। तथा देवगतिचतुष्कका भङ्ग पीतलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए। ३०४. शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीय आदि चार युगलोंका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग नौवेयकके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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