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बंधसण्णियासपरूवणा
१२५ ३०५. भवसि. ओघं । अब्भवसि० आभिणि दंडओ [मदि०भंगो । णवरि] तिरिक्ख०--तिरिक्वाणु०-णीचा. सिया० । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०वज्जरि०--दोआणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगु० । इत्थि०-णवूस० ओघं । अरदिसोग० मदि०भंगो। उवरि सव्वमोघं।
३०६. सासणे आभिणि० ज० बं० चदुणा०-णवर्दसणा०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्य०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु०। सादा०-पंचिंदि०-तेजा०-क०पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०णि अणंतगु०!तिरिक्ख०तिरिक्खाणु०--णीचा. सिया० । तं तु०। दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०--वजरि०दोआणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकॅस्स तं तु० ।
___३०७. सादा० ज० ब० पंचणा०-णवदंसणा०-सोलसक०-भय-दु०--पंचिंदि०. तेजा०-क०-पसत्यापसत्य०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि० अणंतगु० । चदुणोक०
३०५. भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डकके जघन्य अनुभागका धन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो भानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग श्रोधके समान है। अरति और शोकका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। आगेका सब भङ्ग ओघके समान है।
३०६. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आमिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर
आदि छह और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध होता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इस प्रकार तंतु पतित इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३०७. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना. वरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. प्रा. प्रतौ सव्वमोहं इति पाठः ।
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