SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्ख ०३ - दोसरीर दोअंगो० -उज्जो० सिया० अनंतगु० । तिण्णिआउ० - मणुसग ० देवग०- पंचसंठा०-पंच संघ० - दोआणु० - थिरादिछयुग ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । एवं तंतु पदिदाणं सव्वाणं सादभंगो । पंचिंदियदंडओ णिरयभंगो । दोआउ० देवभंगो । देवाउ० ओघं । 1 ३०८. मिच्छादिट्ठी० मदि० भंगो । सण्णी० प्रघो । असण्णीसु आभिणिदंडओ देवगादिसंजुत्तं० कादव्वं । सेसं तिरिक्खोघं । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं जहणपरत्थाणसणियासी समत्तो । १६ भंगविचयपरूवणा ३०६. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुवि० जह० उकस्सयं च । उक्क० पगदं । तत्थ इमं अद्वपदं मूलपगदिभंगो । एदेण अपदेण दुवि० - ओघे० दे० । ओघे० सव्वपगदीणं उक्कस्साणुकस्स० छभंगा । तिण्णिआऊणं उक्कस्साकस्स० सोलसभंगा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइग०-- णंस ० -- कोधादि ०४ - मदि ० - सुद ० -- असंजद ० -- अचक्खु ० --तिण्णले ० -- भवसि ० 0-. अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। चार नोकषाय, तिर्यञ्जगतित्रिक, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, मनुष्यगति, देवगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तंतु-पतित सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सातावेदनीयके समान है । पञ्च ेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । दो आयुका भङ्ग देवोंके समान है । देवायुका भङ्ग ओके समान है । ३०८. मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। संज्ञी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है। असंज्ञियोंमें श्रभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डक देवगतिसंयुक्त करना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य तिर्यश्नोंके समान है । आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवोंमें कार्मरण काययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार जघन्य परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ । १६ भङ्गविचयप्ररूपणा ३०६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसके विषय में यह अर्थपद मूलप्रकृति के समान है । इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके छह भङ्ग हैं। तीन के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके सोलह भङ्ग हैं । इस प्रकार ओघ के समान सामान्य तिर्यन, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy