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________________ भंगविचयपरूवणा १२७ अन्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार-अणाहारग ति । णवरि ओरालियमि०कम्मइ०-अणाहारएसु-देवगदिपंच० उक्कस्साणुकस्स० सोलस भंगा। ३१०. णेरइएसु-दोआउ० दो वि पदा सोलस भंगा। सेंसाणं सव्वपगदीर्ण दोपदा छभंगा। एवं णिरयभंगो पंचिं०तिरि०अपज्ज. मणुस०३-सव्वदेव०-सव्वविगलिंदि०--पंचिं०--तस० तेसिं पज्जतापजत्ता बादर-बोदरपुढवि०-आउ०--तेउ. वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्ताणं च पंचमण०--पंचवचि०-वेउवि०--इत्यिकपुरिस०-विभंग-आभिणि०--सुद०--ओधि०-मणपज्ज०-संजद० याव संजदासंजदा० चक्खुदं०-ओघिदं०-तिण्णिले०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-सण्णि ति । ३११. मणुस अपज्ज०-वेउव्वियमि०-आहार०-आहार०-आहारमि०-अवगद०मुहुमसं०-उवसम०-सासण-सम्मामि० उक्क० अणुक० सोलस भंगा। एइंदिएम दोआउ ओघ । सेसाणं उक्कस्साणुकस्स० अथिरबंधगा य अबंधगा य । एवं एइंदियभंगो बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० अपज्ज०--सव्ववणप्फदिबादर-पत्तेय अपज्ज०--सव्वणियोदाणं सव्वसुहुमाणं च । णवरि एइंदि०-बादरएइंदि० तस्सेव पज्जत्तगेसु उज्जोवं ओघं । पुढ०- आउ०-तेउ०-वाउ०-वादर-पत्ते० सव्वपगदीणं ओघं । एवं उकस्सं समत्तं । क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके सोलह भङ्ग है।। ३१०. नारकियोंमें दो आयुओंके दोनों ही पदोंके सोलह भङ्ग हैं। शेष सब प्रकृतियों के दो पदोंके छह भङ्ग हैं। इसी प्रकार नारकियोंके समान पञ्चन्द्रिय तियश्च तीन पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्यत्रिक, सब देव, सब विकलिन्द्रिय. पश्चन्द्रिय और त्रस तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर और इन पाँचोंके पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयतोंसे लेकर संयतासंयत तकके जीव, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । ___ ३११. मनुष्यअपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके सोलह भङ्ग हैं । एकेन्द्रियोंमें दो आयुओंका भङ्ग ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रियोंके समान बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पति कायिक, बादर प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब निगोद और सब सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें उद्योत ओघके समान है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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