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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
पंचिंदि०-ओरालि०-वेउन्वि ० वेडव्वि ० अंगो० आदाउज्जो ० [तस०] सिया० । तं तु० । एवं दि० - थावर० सिया० अणंतगुणभं । कम्मइगादि० णिमि० णि० । तं तु० । एवं तेजइगादि० अण्णमण्णस्स । तं तु० । आहार दुग - अप्पसत्थ०४ - उप० - तित्थय ० ओघभंगो० ।
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१३६. पुरिसेसु सत्तण्णं कम्माणं इत्थिभंगो । सेसं ओघं । णवरि तिरिक्खगदिदु० परियत्तमाणिगा कादव्वा ।
१३७. वुंसगे सत्तणं कम्माणं इत्थवेदभंगो । चदुर्गादि-चदुजादि छस्संठा ०इस्संघ० - चदुआणु ० दोविहा० - थावरादि ०४ - थिरादिलयुग० ओघं । पंचिंदि० ज० बं० दोगदि - असं प ० - दोआणु० सिया० अनंतगुणन्भ० । दोसरीर दोअंगो० - उज्जो ० सिया० । तं तु० । तेजा० क ० ---पसत्थ०४ - अगु०३ -तस०४ [ - णिमि० ] णि० । तं तु० ।
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पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग, श्रातप, उद्योत और सका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । एकेन्द्रियजाति और स्थावरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । कार्मणशरीर आदि और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तैजसशरीर आदिका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघ के समान है ।
१३६. पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । शेष भंग श्रधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतिद्विककी परिवर्तमान प्रकृतियों में परिगणना करनी चाहिए ।
१३७. नपुंसकवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१. ता० श्रा० प्रत्योः सिया० तं तु० श्रणंतगुणन्भ० इति पाठः ।
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