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________________ चदुक० । बंधसण्णियासपरूवणा [ हुंड०. ] अप्पसत्थवण्ण०४-उप० [-अप्पसत्थ०-] अथिरादिछ० णि. अणंतगुणन्भ० । एवं तेजइगादि० । एवं ओरालिगादीणं पि सिया० । तं तु०। ओरालि. ओरालि०अंगो० सिया० । सेसं मणुसभंगो।। णवरि आदवं तिरिक्खोघं] । १३८. अवगदवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-पंचंतरा० णि• बं० णि० जहण्णा । चदुसंज० ओघं। १३६. आभि०-सुद०-ओधि० सत्तण्णं कम्माणं ओघ । मणुसग० ज० बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि० । तं तु० । अप्पसत्य०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं मणुसगदि - १४०. देवगदि ज० ब० मणुसभंगो । णवरि तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं देवगदिचदुक्कस्स वि । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार नियमसे तं तु-पतित तैजसशरीर आदिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सिया तं तु-पतित औदारिकशरीर आदिकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इन्हींमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव शेषका कदाचित् बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव औदारिकाङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। किन्तु आतपका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। . १३८. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। तात्पर्य यह है कि इन चौदह प्रकृतियोंमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेवका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध करता है । चार संज्वलनका भङ्ग ओघके समान है। १३६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभंग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १४०. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग मनुष्यके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार देवगत्यानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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