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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १४१. पंचिंदि० ज० बं० दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०-तित्थ० सिया० । तं तु० । तेजा-क०-समचदु०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णिः । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभअजस० णि. अगंतगुणब्भ० । एवं पंचिंदियभंगो तेजइगादीणं पसत्याणं' ।। १४२. तित्थ० ज० बं० देवगदि० णि । तं तु० । आहारदुर्ग-अप्पसत्य०४उप० ओघं। १४३. थिर० ज० बं० दोगदि-दोसरीर० सिया० अणंतगुणब्भ० । पंचिंदियादि० णि० अणंतगुणब्भ० । दोयुग० सिया० । तं तु०। तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ०। एवं तिण्णियुग० । एवं ओधिदं०-सम्मादि०-खइगस० । णवरि खइगे मणुसगदिपंचग० जह० तित्थ० सिया० । तं तु०। पूर्वी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १४१. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियजातिके समान तैजसशरीर आदि प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १४२. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वध करता है तो वह छह स्थान पतित: होता है । आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भंग ओघ के समान है। १४३. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति और दो शरीरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे रता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। दो युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन युगलोंका भङ्ग है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और १. ता. प्रतो तेजइगादीणं पसं (स) त्याणं । तित्थ०, श्रा० प्रती तेजगादीणं तित्थ० इति पाठः । २. ता. प्रतौ णि । तित्थ आहारदुगु (गं), श्रा० प्रतौ णि तं तु० श्राहारदुर्ग इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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