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बंधसण्णियासपरूवणा
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१४४. मणपज्जवे सत्तण्णं कम्माणं ओधिभंगो० । णवरि अटकसायं वज्ज । णाम० ओधिभंगो। णवरि मणुसगदिपंचगं वज्ज । तित्थ० ओघं । एवं संजद - सामाइ ०छेदो० - परिहार० -संजदासंजद० । मुहुमसंप० अवगदवेदभंगो ।
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१४५. किण्णाए सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो । सेसं णवंसगभंगो । नीलकाऊणं सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो । णिरयगदि० ज० ओघं० । पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्ख ० - हुंड० णि० अनंतगु० । ओरालि० णि० । तं तु० [ सेसं ] णिरयदंडओ भाणिदव्वओ' । वेडव्वि० जं० बं० णिरयगदिअट्ठावीसं अनंतगुणब्भ० । वेडव्वि०अंगो० णि० । तं तु० । एवं वेडव्विय० अंगो० । सेसं किण्णभंगो० । काऊ तित्थ० णिरयभंगो |
१४६. तेऊए सत्तणं कम्माणं देवगदिभंगो। णवरि कोधसंज० ज० बं० तिण्णिसंज० - पंचणोक० णि० । तु० । दोगदि - दोजादि -- इस्संठा ० - वस्संघ० - दोआणु ०अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
१४४. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए। नामकर्मका भङ्ग अवधिज्ञानी tara समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चकको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए | तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघ के समान है। इसी प्रकार संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवों के जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है ।
१४५. कृष्ण लेश्या में सात कर्मोंका भंग नारकियों के समान । शेष भङ्ग नपुंसकों के समान है । नील और कापोत लेश्या में सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। नरकगतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और हुण्डसंस्थानका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिकशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । शेष प्रकृतियोंका भंग नरकदण्डकके समान कहना चाहिए। वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार वैक्रयिक आङ्गोपाङ्गका भी भङ्ग जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्णलेश्या के समान है । कापोतलेश्या में तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
१४६. पीत लेश्यामें सात कर्मोंका भंग देवगति के समान है । इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । दो गति, दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति,
१. श्रा० प्रतौ भाणिदव्वाश्र इति पाठः ।
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