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वैधसण्णियासपरूवणा
६१ १३२. इत्थिवे. सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णवरि कोधसंज० ज०० तिण्णिसंज०-पुरिस० णिय० ब० णियमा जहण्णा । चदुगदि-चदुजादि-छस्संठाण--छस्संघ०चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४-थिरादिछयुग० पंचिंदि०तिरि०भंगो।
१३३. पंचिं० ज० बं० णिरयगदि-हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ० णि. अणंतगुणब्भ०। वेउव्वि०-तेजा०-क०-वेउव्वि०अंगो०. पसत्थ०४-अगु०३--तस०४-णिमि० णि । तं तु० । एवं [ वेउव्वि०-] वेउन्वि०अंगो०-तसं० । ओरालि०-आदाउज्जो० सोधम्मभंगो।
१३४. ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिवख०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०-असंप०. पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु० - अगु०-उप०-तस० - बादर०-पत्ते० - अथिरादिपंच०णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । वेइंदि०--पंचिंदि०-पर-उस्सा०-उज्जो०--अप्पसत्य०पज्जत्तापज्ज०-दुस्सर० सिया० अणंतगुणभ०।
१३५. तेजा०-कम्मइ० ओघं । णवरि [ ओरालियअंगो०- ] असंपत्तं वज्ज ।
३२. स्त्रीवेदी जीवोंमें सात कर्मोका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार भानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
१३३. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग और त्रसकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । औदारिकशरीर, आतप और उद्योतका भंग सौधर्मकल्पके समान है।
१३४. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्तवर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। द्वीन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
१३५. तैजसशरीर और कार्मणशरीरका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिकाङ्गोपांग और असम्प्राप्तामृपाटिका संहननको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
१. ता. प्रतौ कोधसंज. पुरिस-णिय बंध० णियमो०(मा०) जहण्णा इति पाठः। २ ता. श्रा० प्रत्योः -जादि चदुसंठाणं श्रोरालि० अंगो छस्संव. इति पाठः। ३. ता. श्रा. प्रत्योः तस.४ इति पाठः।
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