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________________ wwwwwwwwwwwwwwww २२४ महापंधे अणुभागववाहियारे ओघ । गवरि अप्पप्पणो पगदीओ णादवाओ। ४२५. परिहार०-संजदासंज०-वेदग० सव्वहभंगो। णील-काऊणं सव्वतिव्वाणुभागं देवग० । मणुसग० अणंतगु० । तिरिक्ख० अणंतगु०। णिरय. अणंतगु० । एवं आणु० । सेसाणं किएणभंगो । तेउ० देवमंगो। एवं पम्माए वि । सासणे णिरयभंगो । सम्मामि० वेदग-भंगो । असण्णी० तिरिक्खभंगो। एवं उक्कस्ससत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४२६. जह० पग० । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे सव्वमंदाणुभागं मणपज्ज०। ओधिणा० अर्णतगुणब्भहियं । सुद० अणंतगुणब्भ० । आभिर्णि० अणंत०महि । केवल. अणंतगु०। ४२७. सव्वमंदाणुभागं अोधिदं० । अचक्खु० अणंतगु० । चक्खु० अणंतगु० । केवलदं० अणंतगु० । पचला. अणंतगु० । णिहा. अणंतगु० । पचलापचला. अणंतगु० । णिहाणिद्दा० अणंतगु० । थीणगिद्धि० अणंतगु० । ४२८. सव्वमंदाणुभागं असादा० । सादा० अणंतगुणब्भहिः । पोषके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। ४२५. परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। नील और कापोत लेश्यामें देवगतिका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यञ्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार चार आनुपूर्वियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्णालेश्याके समान है। पीतलेश्यामें देवगतिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पदमलेश्यामें भी जानना चाहिए। सासादनमें नारकियोंके समान भङ्ग है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४२६. जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मनापर्ययज्ञानावरण सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे अवधिज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे श्रुतज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। ४२७. अवधिदर्शनावरण सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे अचक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुण। अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। ४२८. असातावेदनीय सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुण। अधिक है। १. ता. श्रा. प्रत्योः अर्णतगुणन्भदियं इति पाठः। २. श्रा० प्रती सुद० अणंतगुणभ. दुर्ग अणंतगुणन्म० श्राभिणि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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