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________________ अप्पा बहुगंपरूवणा २२७ इत्थि० अतगु० | णवुंस • अरांतगु० ! अपच्चक्खाण०४- पञ्चक्खाण०४ - अताणुबं ०४ संजलणाए भंगो | मिच्छ० अांतगु० । सव्वमंदाणु० तिरिक्खाउ० । मणुसाउं० अरणंतगु० । सव्वमंदाणु० तिरिक्खग० | मणुसग० अांतगु० । सेसाणं पगदीणं मूलोघं । एवं सत्तसु पुढवीसु० । ४३४. सव्वतिरिक्खा णेरइयभंगो। णवरि मोहस्स पच्चक्खाण०४ पुर्व कादव्वं । सव्वअपज्जत्तयाणं देवारणं सव्व एइंदिय- सव्वविगलिंदिय-पंचकायाणं च णेरइगभंगो । किंचि विसेसो साधेदव्वो । 1 0 0 ४३५. मणुस ०३ - पंचिं ० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०-- कायजोगि -ओरालि ०इत्थि० - पुरिस० स० ओघं । अवगर्द० - कोधादि ०४ - आभिणि० - सुद० - ओधि०-मणपज्ज० - संजद - सामाइय-छेदो ० -सुहुमसं० चक्खु०-अचक्खु ० - ओधिदं ० - सुक्कले ० - भवसि ० सम्मादि ० - खड्ग ० - उवसम० सण्णि आहारए त्ति मूलोघं । ओरालियमि० - कम्पइ०मदि० - सुद० - विभंग ० - असं ज० - तिण्णिले ० -- अब्भवसि ० -- मिच्छा० - अणाहारएसु दंसणावरणीयं मोहणीयं णेरइगभंगो। सेसाणं मूलोघं । वेडव्वि ० वेडव्वियमि० देवभंगो । आहार०आहारमि० - परिहार० - संजदासंज० - सम्मामिच्छादि० सव्वहभंगो । तेडले ० - पम्मले ० विशेष अधिक है । इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण चार, प्रत्याख्यानावरण चार और अनन्तानुबन्धी चारका भङ्ग संज्वलनके समान है । अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागसे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । तिर्यश्वायुका अनुभाग सबसे मन्द है । इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । तिर्यचगतिका अनुभाग सबसे मन्द है । इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग मूलोधके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । ४३४. सब तिर्यों का भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय में प्रत्याख्यानावरण चारको पहले करना चाहिए। सब अपर्याप्त, देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग नारकियों के समान है । कुछ विशेषता साध लेनी चाहिए । 1 ४३५. मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघ के समान भङ्ग अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंगत, छेदोपस्थापना संयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और अनाहारकों में दर्शनावरणीय और मोहनीयका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग लोके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रिथिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवों के समान भङ्ग है । आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि १. ता० प्रतौ पुरिस० एषं स० । श्रवगद०, श्रा० प्रतौ पुरिस० श्रोधं । श्रवगद० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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