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________________ ww २२८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दसणा०-मोह० तिरिक्ख भंगो । सेसं देवभंगो! वेदग० दसणा-मोह० तिरिक्खगदिमंगो। सेसाणं सव्वहभंगो। सासणे णिरयभंगो। असण्णीम सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो । णामाणं तिरिक्खभंगो। एवं जहण्णसत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४३६. एत्तो परत्थाणअप्पाबहुगं पगदं । दुविधं-ज. उक० । उक० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० उक्कस्सओ चदुस्सहिपदिददंडओ कादवो भवदि । तं जहा-सव्वतिव्वाणुभागं सादा० । जस०-उच्चा० दो वि तु० अणतगुणहीणा । देवगदि० अणंतगु० । कम्मइ० अणंतगुण। तेज० अणंतगु० [आहार० अणंतगुणही।] वेउव्वि० अणंतगु०। मणुस० अणंत० ओरालि. अणंता मिच्छ० अणंत०। केवलणा०केवलदं०-असाद०-विरियंतरा० चत्तारि वि तुल्ला. अणंतगु० । अणंताणु लोभ. अणंतगु० माया विसे० कोधो विसे । माणो विसे । संजलणाए लोभ० अणतगु०॥ माया विसे। कोधो विसे० । माणो विसे । एवं पञ्चक्खाण०४-[अपञ्चक्खाण०४-] । आभिणि-परिभो० दो वि तु. अणंतगु०। चक्खु० अणंतगु० । मुद०-अचक्खु०जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें दर्शनावरण और मोहनीयका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। शेष भङ्ग देवोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दर्शनावरण और मोहनीयका भङ्ग तिर्यश्चोंके समान है। शेष कर्मोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके समान है। सासादनमें नारकियोंके समान भङ्ग है। असंज्ञियोंमें सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है। __ इस प्रकार जघन्य स्वस्थान अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। ४३६. इससे आगे परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है। वह दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे उत्कृष्ट चौंसठपदवाला दण्डक करना चाहिए । यथा-सातवेदनीयका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे यशाकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तागुणा हीन है । इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगणा हीन है। इससे आहारकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्य. गतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणाहीन है। इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मायाका अनुभाग विशेष हीन है । इससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका अनुभाग विशेष हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मानका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन क्रोधका अनुभाग विशेष होन है। इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण चारका अल्पबहुत्व है। अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों हो तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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