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________________ १८० महाबँधे श्रणुभागबंधाहियारे उच्चा० उ० अट्ठ े०, अणु० सव्वलो ० | देवगदिदुग० उक्क० अणु० पंचचों० । वेडव्वि०वेडव्वि० अंगो० उ० पंचचों, अणु० ऍकारह० । णिरयगदिदुगं ओघं । अथवा सव्वाणं मदिअण्णा णिभंगो कादव्वो । २७४. सासणे पंचणा०--- णवदंसणा ० - असादा ० -- सोलसक० - अहणोक० -- तिरिक्ख ० चदुसंठा ० चदुसंघ०[०-- अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० ०--उप०-- अप्पसत्थ०-०--अथिरादिछ० - णीचा ० - पंचंत० उ० [अणु०] अट्ठ-बारह ०। सादा ०- पंचिंदि० ओरा ० - तेजा० क०समचदु० - ओरा ० चंगो ० - वज्जरि०-पसत्थ०४ - अगु० ३ - पसत्यवि० -तस०४ - थिरादिछ०णिमि० उ० अट्ठ०, अणु० अट - बारह० । देवाउ० ओघं । दोआउ० उ० खैत्त०, अणु ० श्रातप, उद्योत और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगतिद्विकका भङ्ग ओघके समान है । अथवा सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान करना चाहिए । विशेषार्थ - जो ऊपर छह और नीचे छह इस प्रकार कुछ कम बारह बटे चौदह राजुके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, ऐसे जीवोंके भी सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । देवोंके विहारादिके समय तो हो ही सकता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । मात्र मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कई कारणों से कुछ कम बारह बटे चौदह राजू नहीं प्राप्त होता, इसलिए यह कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इन सातावेदनीय आदि और मनुष्यगति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । जो तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके देवगतिद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है; इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार वैक्रियिकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन घटित कर लेना चाहिये । मात्र इसमें नीचेका कुछ कम छह राजू स्पर्शन मिलाने पर कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन वैक्रियिकद्विकके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ३७४. सासादनमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगति, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम वारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और १. ता० प्रतौ श्रादा० उच्चा० उ० श्रड, श्रा० प्रतौ० श्रादाडजो० उ० श्र० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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