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________________ फोसणपरूवणा १८१ अह० । मणुस ०-मणुसाणु० -उच्चा० उ० अणु० अडचों० | देवगदि०४ उ० अणु० पंचचों० । उज्जो० उ० खेत्त०, अणु० अट्ठ-बारह० । मिच्छादिडी० मदि० भंगो । ३७५. असण्णीसु' पंचणा० णवदंस ० - दोवेदणी० - मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक ०तिरिक्खाउ०- मणुस ० - चदुजा ० - ओरा ० - तेजा ० ०-- क० - छस्संठा० - ओरा ० गो० - छस्संघ०पसत्थापसत्थ०४ - मणुसाणु ० -- अगु०४ - आदाउज्जो ० -- दोविहा ० [०--तस०४ - थिरादिछ० णिमि० -- दोगो ० -- पंचंत० उ० लो० असंखे, अणु० सव्वलो० । हस्स- रदि० O अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुका भङ्ग ओघ के समान है । दो आयुओं के उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मिध्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । विशेषार्थ - सासादन सम्यक्त्वका विहार श्रादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन है । प्रथम दण्डककी प्रकृतियोंके दोनों प्रकारके अनुभाग के बन्धक जीवोंका यह दोनों प्रकारका स्पर्शन सम्भव है और सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के समय कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन सम्भव नहीं है, इसलिए इन बातों को ध्यान में रखकर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन कहा है । तिर्यवायु और मनुष्यायुका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध विहारादिके समय सर्वत्र सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार मनुष्यगति आदि तीनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू जानना चाहिए । देवगतिचतुष्कका बन्ध तिर्यन और मनुष्य करते हैं, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। उद्योतका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घात के समय भी सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ३७५. असंज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यवायु, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मरणशरीर, छह संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णंचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके १. श्रा० प्रतौ मणुसार ० उ० इति पाठः । भंगो । श्रसणीसु इति पाठः । Jain Education International २. ता० प्रा० प्रत्योः मदि०भंगो । सण्णी पंचदिय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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