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________________ ___ १७९ फोसणपरूवणा ३७२. सुक्काए पढमदंडओ उ० अणु० छच्चों। खविगाणं उक्क० खेत०, अणु० छच्चों । देवाउ०-आहारदुग० खेत० । ३७३. अब्भवसि० पढमदंडओ मदि भंगो। सादा०-पंचिंदि०-ओरा०-तेजा०क०-समचदु०--ओरा अंगो०--वज्जरि०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० उ० अह-बारह०, अणु० सव्वलो० । मणुस०--मणुसाणु०--आदाउज्जो. मात्र पद्मलेश्याम मारणान्तिक समुद्घातद्वारा तिर्यश्च और मनुष्य कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं, इसलिए इस लेश्यामें देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इस लेश्यामें शेष सब प्ररूपणा पीतलेश्याके समान है। मात्र यहाँ अपनी प्रकृतियाँ कहनी चाहिए । ३७२. शुक्ललेश्यामें प्रथम दण्डकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूममाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। क्षपक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग समान है। विशेषार्थ-शुक्ललेश्यामें कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि आनतादिदेवोंका मेरुके मूलसे नीचे गमन नहीं होता। यहाँ पर प्रथम दण्डकमें ये प्रकृतियाँ ली गई हैंपाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर,पाँच संस्थान,औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन,अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात,अप्रशस्त विहायोगति,अस्थिर,अशुभ, दुभंग,दुःस्वर, अनादेय, अयशः. कीर्ति नीचगोत्र और पाँच अन्तराय । क्षपक प्रकृतियाँ ये हैं-सातावेदनीय, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र । यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देवोंके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । क्षपक प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और इनका अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध देव भी करते हैं। मात्र देवगतिचतुष्कका बन्ध तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, सो देवोंमें मरणान्तिक समुद्घात करनेवाले इनका भी स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण उपलब्ध होता है । देवोंका तो इतना है ही, इसलिए इन सब क्षपक प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। ३७३. अभव्योंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। सातावेदनीय, पश्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम बारह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति,मनुष्यगत्यानुपूर्वी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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