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________________ १८४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे जहाँ जो विशेषता होगी, वह उस उस प्रकृतिके निरूपणके समय कहेंगे । अब रहा जघन्य अनुभागबन्धका विचार, सो प्रथक दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध जिनके होता है, उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध यथासम्भव चार, तीन या दो गत्तिके जीव मध्यम परिणामोंसे करते हैं। इनका स्पर्शन सर्व लोक होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिके संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव करते हैं, किन्तु यह बन्ध करते समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता यथासम्भव अन्यत्र भी नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवीका स्पशन 'कुछ कम आठ बटेचौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नरकायु, देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध तियश्च और मनुष्य करते हुए भी एकेन्द्रिय जीव भी करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। तथा देव भी विहारादिके समय इसका अजघन्य अनभागबन्ध करते हैं, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कल कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण अलगसे बतलाया है। तिर्यश्च और मनुष्य मारणान्तिक समुद्घातके समय भी नरकगतिद्विकका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राज प्रमाण कहा है । ऐशान कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्च और मनुष्यके देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है। ऐसा मानने पर इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण प्राप्त होता है और सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके भी यह जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, ऐसा मानने पर इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । इनका अजघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले जीव सर्वार्थसिद्धि तक मारणान्तिक समुद्घात करते हैं और इनका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूसे अधिक नहीं है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो पञ्चन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी पञ्चन्द्रियजाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो देव बादर एकेन्द्रियोंमें ऊपर सात राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी औदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी वैक्रियिकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध होता है। तथा देव और नारकियोंमें समुद्घात करते समय इनका अजघन्य अनुभागबन्ध भी होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। ऐशान तकके देवोंके विहारादिके समय भी आतपका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और तिर्यञ्चोंके सिवा तीनों गतिके जीवोंके यथायोग्य इसका बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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