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फोसणपरूवणा
१५ ३७७. णिरएस पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-तिरिक्ख.. अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०--णीचा०--पंचत० ज० खेत०, अज० छच्चों। दोवेदणी०-इत्थि०-णस-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०-छस्संठग०-ओरा० अंगो०-छस्संघ० पसत्य०४---अगु०३-[ उज्जो०-] दोविहा०-तस०४-थिरादिछयु०-णिमि० ज० अज. छ० । दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-तित्थ०-उच्चा० ज० अज० खेत्तः । एवं सत्तमाए पुढवीए । छसु उवरिमासु एसेव भंगो । गवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सादभंगो । एवं अप्पप्पणो रज्जू भाणिदव्वं । इत्थि०-णवंस० ज० खेत०।
३७८. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदंस०-अहक०--सत्तणोक०--पंचिं०--तेजा०-क०पसत्यापसत्थ०४-[ अगुरु०४- ]तस०४-णिमि०-पंचंत० ज० छ०, अज० सव्वलो।
३७७. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पश्चोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिकश्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, दो विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह युगल और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तीर्थंकर और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहलेकी छह पृथिवियों में यही स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार अपनी-अपनी रज्जु कहना चाहिए। तथा इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण है, इसलिए यहाँ कुछ प्रकृतियों के सिवा शेष सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है और सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भी उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। मात्र पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको तथा दो आयु आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको देखते हुए यह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए यह क्षेत्रके समान कहा है। प्रथमादि पृथिवियोंमें अपना-अपना स्पर्शन समझ कर सब प्ररूपणा इसी प्रकार कहनी चाहिए। केवल तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध इन पृथिवियोंमें मिथ्यादृष्टि नारकी परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे करते हैं। अतः यहाँ इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहा है।
३७. तिर्यश्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण,पाठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह
१. ता. प्रतो तेजाक० छस्संठा• तेजाक० छस्संठा० (१) प्रा. प्रतौ तेजाक० पंचसंठा इति पाठः। २. ता.श्रा०प्रत्योः अप्पसत्थ०४ इति पाठः । ३. ताश्रा०प्रेत्योः थिरादिछ. णिमि. इति पाठः।
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