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________________ बंधसणिया सपरूवणा १११ ० दु० - मणुसं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा०क० समचदु० - ओरालि० अंगो ० वज्जरि०पसत्थापसत्थ०४- मणुसाणु० - अगु०४- पसत्थवि ० -तस०४- सुभग- सुस्सर-आदें० - णिमि०उच्चा० - पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । सादासाद०- -थिरा दितिष्णियुग ० सिया० अनंतगुणभ० । सोग० णि० । तं तु ० । एवं सोग० । तिरिख ० - मणुसाउ०- मणुसग ०मणुसाणु० ओघं । २६५. तिरिक्ख० ज० बं० पंचणा० - णवदंस०-मिच्छ०- सोलसक० भय०-दु०पंचंत० णि० अनंतगुणब्भ० । सादासाद० - तिरिक्खाउ० सिया० । तं तु० । सत्तणोक० सिया० अनंतगुणन्भ० । णीचा० णि० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो | एवं तिरिक्खाणु० - णीचा० । चदुजादि वस्संठा० - इस्संघ० - दोविहा० - थिरादि०४ ओघं । । २६६. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा० णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक० भय०-दु०पंचत० नियमा० अनंतगुणग्भ० । सादासाद० - दोआउ० - दोगोद० सिया० । तं तु० । मिध्यात्व, सोलह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आांगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यवायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष के समान है । २६५. तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्त्र, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और तिर्यञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पति वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इसी प्रकार तिर्यगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि चार युगलकी मुख्यता से सन्निकर्ष ओघ के समान है । २६६. पचेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु और दो गोका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह १ ता० प्रतौ भय० म० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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