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________________ ११२ महाबंध अणुभागबंधाहियारे सत्तणोक० सिया० अनंतगुणग्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं पंचिदियजादिभंगो तस०४ । थिरादिछयुग० हेट्ठा उवरिं पंचिंदियभंगो। णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो । २६७. ओरालि० ज० बं० पंचणा ० णवदंसणा ० - असाद ०-मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक ० - णीचा ० - पंचंत० णिय अनंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं ओरालियभंगो तेजा ० -- क० - पसत्थव ०४ - अगु० - णिमि० -ओरालि० अंगो०- पर० - उस्सा ० 1 आदाउजो० एवं चैव । सादासाद ० चदुणोक० सिया० अनंतगुणन्भ० । णाम० सत्थाणभंगो | उच्चा० ओघो । णवरि पंचिंदिय० णि० । तं तु ० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वविगलिंदियाणं पुढ० - आउ०- वणष्फदि ० - बादरपत्ते ० - णियोदाणं च । तेऊणं [वाऊणं] पि एवं चेव । णवरि मणुसगदिचदुक्कं वज्ज । तिरिक्खगदिधुविगाणं सव्वाणं आभिणि० भंगो । एदिए अपज्जत्तभंगो । णवरि तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं । २६८. मणुस ० ३ खविगाणं संजमपाओग्गाणं ओघं । सेसाणं पंचिदियतिरिक्ख भंगो । छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार पञ्च ेन्द्रियजातिके समान त्रसचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्थिर आदि छह युगलकी मुख्यतासे नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष पञ्च ेन्द्रियजातिके समान है । तथा नामकर्म की प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान जानना चाहिए। २६७. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इसी प्रकार श्रदारिकशरीर के समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात और उच्छ्वासकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यह सातावेदनीय, असातावेदनीय, और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है । उच्चगोत्रकी मुख्यतासे धके समान सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि यह पश्चेन्द्रिय जातिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात् पच ेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंके समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायिक बादर प्रत्येक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति चतुष्कको छोड़कर जानना चाहिए । तथा तिर्यञ्चगति आदि सब ध्रुव प्रकृतियोंका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है । एकेन्द्रियों में अपर्याप्तकों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यश्र्चोंके समान है। २६८. मनुष्यत्रिक में क्षपक प्रकृतियाँ और संयम प्रायोग्य प्रकृतियाँ इनका भङ्ग श्रधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चद्रिय तिर्यश्वों के समान है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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