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________________ ८२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अप्पज्जत्तभंगो। १८७. पंचिंदि० - तस०२-पंचमण० - पंचवचि० - काययोगी० ओघो । ओरालियका० मणुसभंगो।ओरालियमि०आभिणि दंडओ पंचिं०तिरि०अपज्ज० पढमदंडओ। साददंडओ तिरिक्खोघो । इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-दोआउ०-तिण्णिजादि-चदुसंठा०चदुसंघ०-आदाउज्जो०-पसत्थवि०-दुस्सर० अपज्जत्तभंगो। मणुसग० उ० बं० पंचणाणवदंसणा०--मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु०ही० । दोवेदणी०-चदुणोक० सिया० अणंतगु ०ही० । णाम० सत्थाणभंगो।। १८८. वेउव्वियका०-वेउव्वियमि० देवोघं । उज्जोवं ओघं । आहार०-आहारमि० आभिणिबो० उ. बं० चदुणा०--छदंसणा०--असादावे०--चदुसंज-पंचणोक०-- अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर--असुभ०--अजस०-पंचंत० णि । तं तु० ! पसत्थाणं धुविगाणं णि० अणंतगुणही। तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार तं तु. पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उन सबकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जैसा सातावेदनीयकी मुख्यतासे कहा है, वैसा जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तक जीवोंके समान है। अर्थात् पहले जिस प्रकार अपयाप्तक जीवोंके सन्निकर्ष कह आये हैं, उस प्रकार यहाँ शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १८७. पञ्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डककी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्च. न्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके प्रथम दण्डकके समान है। सातावेदनीयदण्डककी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो आयु, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तकोंके समान है । मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सालइ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा होन होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। १८८. वैक्रियिक काययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। उद्योत प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। प्रशस्त ध्रुव प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। १. ता. श्रा० प्रत्योः ओरालियमि० श्राभिणिबो० उ० ब०, एवं श्राभिणिदंडो इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ -दंडोतिरिक्खोघो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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