________________
बंधसण्णियासपरूषणा १८६. सादा० उ० बं० अप्पसत्थाणं णि अणंतगु० । देवगदिपसत्यहावीसं उच्चा० णि । तं तु० । तित्थकरं सिया । तं तु०। एवं पसत्थाणं ऍक्कमक्कस्स तं तु० ।
१६०. हस्स० उ० बं० धुरियाणं अप्पसत्थाणं असाद-अथिर-असुभ-अजस० णि. अणंतगु०ही. । सेसाणं पि णि० अणंतगुण ही। रदि० णि । तं तु०। एवं रदीए।
१६१. कम्मइगका० आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०. मिच्छ० - सोलसक०-पंचणोक-तिरिक्ख० - हुंड ०-अप्पसत्य०४-तिरिक्वाणु० - उप०अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचत० णि । तं तु० । एइंदि०-असंप०-अप्पसत्यवि०-थावरादि०४-दुस्सर० सिया०। तं तु । पंचिं०-ओरालि.अंगो०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस०४ सिया० अणंतगु०ही० । ओरालि०-तेजा.-क०-पसत्य०४-अगु०
१८६. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अप्रशस्त प्रकृतियों का नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए जो सातावेदनीयकी मुख्यतासे जैसा कहा है, उसी प्रकारका है।
१६०. हास्य प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अप्रशस्त ध्रुव प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। शेष प्रकृतियोंका भी नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है
और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात् हास्यके समान रतिकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६१. कार्मणकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और दुःस्वरका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। औदारिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org