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________________ ८४ महाबंधे अणुभागबंधाहिया रे णिमि० णि० अनंतगु० ही ० । एवं तं तु० पदिदाओ सव्वाओ । १६२. साद० उ० बं० पंचणा ०-छदंसणा०--वारसक० -- अप्पसत्थ०४- उप०पंचत० णि० अनंत ० ही ० । दोगदि- दोसरीर दोअंगो० - वज्जरि०-दोआणु० - तित्थय ० सिया० तं तु ० | पंचिंदि ० - तेजा ० क० समचदु० - पसत्थ०४ - अगु० थिरादिछ० - णिमि० - उच्चा० णि० । तं तु० । एवं तं तु ० पदिदाओ सव्वाओ । इत्थि०पुरिस०-हस्स-रदि- तिणिजादि चदुसंठा ० चदुसंघ० ओघो । -पसत्थ०-तस०४ १६३. इत्थवेदेसु आभिणित्रो० उ० बं० चदुणा० णवदंसणा ० - असादा०मिच्छ०- सोलसक० - पंचणोक० - हुंड० - अप्पसत्थ०४- उप० अथिरादिपंच० - णीचा ० - पंचंत० णि० । तं तु० । णिरयग०-तिरिक्ख०- एइंदि० - दोआणु० - अप्पसत्थविं ० थावर- दुस्सर० सिया० तं तु० । पंचिं ० - दोसरीर - वेडव्वि ० अंगो० - आदाउज्जो ० -तस० सिया० अनंतगु०शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे सन्निकर्षं अभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए । १२. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छद दर्शनावरण, बारह कषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्च ेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । इसी प्रकार तं तु पतित सव प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन जाति, चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । १६३. स्त्रीवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चार, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह 1 1 १. ता० प्रा० प्रत्योः दोश्रा० दुवि० अप्पसत्थवि० इति पाठः । २. आ० प्रतौ सिया • पंचि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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