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________________ बंधसण्णियासपरूत्रणा ८५ ही० । तेजा ० क० - पसत्थ०४- अगु०३ - बादर - पज्जत्त- पत्ते ० - णिमि० णि० अनंत०ही० । एवं तं तु ० पदिदाणं अण्णमण्णस्स । तं तु ० । इत्थि० -- पुरिस० - हस्स - रदि-- चदुआउ०मणुसग दिपंच० - सादादिखविगाणं तिण्णिजादि -- चदुसंठा० - चंदुसंघ० मुहुम ० --अपज्ज०साहा • ओघं । १६४. णिरय० उक्क० वं० ओघं । एवं णिरयाणु ० - अप्पसत्थवि० दुस्सर० । तिरिक्ख० उ० ० हेट्ठा उवरिं एइंदियसंजुत्ताओ सोधम्मपदमदंडओ । १६५. असंप० उ० वं० पंचणा० णवदंसणा ० - असादा०-- मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक ० - तिरिक्ख ०३ - ओरालि०- तेजा० क० -हुंड०-ओरालि० अंगो००-पसत्थापसत्थ०४अगु० - उप०-तस०- बादर - पत्ते ० -- अथिरादिपंच ०-- णिमि० णीचा० पंचतं० णि० अनंतगुणही ० | पंचिं ० - पर० - उस्सा० उज्जो०- अप्पसत्थवि ० - पज्जत्तापज्ज० सिया० अनंतगु०ही ० । बेई० सिया० । तं तु० । छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और का कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णं चार, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यता से परस्पर सन्निकर्ष जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरण की मुख्यता से कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार आयु, मनुष्यगति पञ्चक, सातावेदनीय आदि क्षपक प्रकृतियाँ, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यता से सन्निकर्ष ओघ के समान है । - १४. नरकगति उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष के समान है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी एकेन्द्रियजाति संयुक्त प्रकृतियोंकी मुख्यता से सन्निकर्ष सौधर्मकल्पके प्रथम quee समान है। १६५. असम्प्राप्तासृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगतित्रिक, दारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा होता है । पच ेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और अपर्याप्त कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । द्वीन्द्रियजातिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनु त्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। १. श्रा० प्रतौ० ग्रिमि० णि० पंचंत० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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