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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १९६. पुरिसेसु ओघो। णवरि उज्जो देवोघं । १६७. णवूस० आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक-०-हुंड ०-अप्पसत्थ०४-उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०पंचंत० णि । तं तु०। दोगदि-असंप०-दोआणु, सिया० । तं तु० । पंचिं०-तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि०. णियमा अणंतगु० । दोसरीर-दोअंगो०--उज्जो० सिया० अणंत०ही. । णिरयग० ओघं । १६८. तिरिक्व० उ० ब० असंपत्त-तिरिक्वाणु०-अप्पसत्यवि०-दुस्सर० णि । तं तु०। पंचिं०-ओरालि.अंगो-तस०४ णि. अणंतही० । १६६. एइंदि० उ० बं० थावरादि०४ णि० । तं तु.। एवं थावरादि०४ । सैसं ओघं। २००. अवगदवे० आभिणिवो० उ० बं० चदुणा०-चदुदंसणा०--चदुसं० १६६. पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। १६७. नपुसकवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। दो गति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नरकगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। १६८. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्त' वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और सचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणाहीन होता है। १६६. एकेन्द्रियजातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव स्थावर आदि चारका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है। २००. अपगतवेदी जीवोंमें आभिनिवोधिक ज्ञानावरण के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला १. प्रा. प्रतौ चदुणा० चदुसंज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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