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________________ बंधसण्णियास परूवणा पंचत० णि० उक्क० | साद० - जस० उच्चा० णि० अनंतगु० ही ० । एवं अप्पसत्थाणं । साद० -जस० उच्चा० ओघो । एवं मुहुमसंप० । कोधादि०४ ओघो । णवरि साद०जस०-उच्चा० उ० बं० पंचणा० चदुदंसणा ० चदुसंज० - पंचंत० णि० अनंतगु० | माणे 1 तिण्णिसं जल० णि० अनंतगु० ही ० । मायाए दोसंज० णि० अनंतगु० ही ० । लोभे ओघं । २०१. मदि०-सुद० आभिणिदंडओ ओघो । साददंडओ ओघो । णवरि पंचणा० - णवदंसणा ० - मिच्छ०- सोलसक० - पंचणोक० - अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० णि० अनंतगु० | देवगदिसंजुत्ताओ यात्र जस० - उच्चा० गोद त्ति णि० । तं तु० । सेसं ओघं । एवं विभंगे । ८७ २०२. आभिणि०--सुद० -ओधि० आभिणि० उ० बं० चदुणा०-छदंसणा - ० [ असाद० -- बारसक० - पुरिसवे ० -- अरदि ० - सोग - भय - दु० - अप्पसत्थ०४ - ] उप०अथिर' - असुभ अजस० पंचंत० णि० । तं तु० । दोगदि- दोसरीर दो अंगो ० - वज्जरि०जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका नियमसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका नियम से बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सातावेदनीय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघ के समान है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए। क्रोध आदि चार कषायवाले जीत्रों में सब प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । मानमें तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है I मायामें दो संज्वलनका नियमसे बन्ध होता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। लोभमें के समान भन है । २०१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग श्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि यह पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, प्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । देवगतिसंयुक्त प्रकृतियों से लेकर यशः कीर्ति और उच्चगोत्र तककी प्रकृतियोंका नियम से बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष भङ्ग ओघ के समान है । इसी प्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए । २०२. आभिनिबोधिकज्ञानो, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुपवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, शुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ १. ता० प्रतौ एवं विभंगे श्रभिणि० उ० बं० चदुणा० छदंस० उप० श्रथि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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