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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोआणु०--तित्थ० सिया० अणंतगु०ही । पंचिं०-तेजा०-क०-समचदु०--पसत्थ०४अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-सुभगं-सुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा० णि० अणंतगु०ही । एवं अप्पसत्थाणं उकस्ससंकिलिहाणं । २०३. हस्स० उक्क० ब० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक०-पुरिस०-भयदु०-पंचिंदि०--तेजा.--क०-समचदु०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४- पसत्यवि०-तस०४-- अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतगु० । रदि० णि । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०-तित्थ० सिया० अणंतगु०ही । एवं रदीए। २०४. मणुसाउ० देवोघं । सादादीणं खविगाणं देवाउ० मणुसगदिपंचगस्स य ओघो। एवं आभिणिभंगो ओधिदंस०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम० । मणपज्ज. आभिणिभंगो।णवरि असंजदपगदीओ वज्ज । एवं संजद-सामाइय-च्छेदो०-परिहार० । संजदासंज० आभिणि दंडओ साददंडओ ओधि भंगो। णवरि संजदासंजदपगदीओ नाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । पञ्चन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कामणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट बन्धको प्राप्त होनेवाली अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सत्रिकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। २०३. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायो सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २०४. मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। सातावेदनीय आदि क्षपक प्रकृतियाँ, देवायु और मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। इसी प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मनःपयेयज्ञानी जीवोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असंयतोंके बँधनेवाली प्रकृतियोंको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिए । संयतासंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डक और सातावेदनीय दण्डक अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयत प्रकृतियोंको १. ता० प्रतौ तस० सुभ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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