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________________ बंधसण्णियासपरूवणा ८१ सेसं सहस्सारभंगो । णवरि मणुसगदि [२] धुवं कादव्वं । १८५. अणुदिस याव सव्वह ति आभिणिवो० उ० बं० चदुणा०--छदसणाअसादा०-बारसक०-पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-अमुभ-अजस०-पंचंत णि| तं तु० । मणुस०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-सुभग०-सुस्सर०--आदें-णिमि०उच्चा० णि. अणंतगुणही । तित्थ० सिया० अर्णतगुणही० । एवं आभिणिभंगो अप्पसत्थाणं सव्वाणं । सादादीणं आणदभंगो। १८६. एइंदिएमु साद० उ० ब० पंचणाo-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत णि० अणंत०हीणं० । तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु०णीचा. सिया० अणंत०हीणं० । मणुस०-मणुसाणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० । तं तु० । पंचिंदियादिबंधगा णिय० बं० । तं तु० । एवं तं तु. पदिदाणं सव्वाणं । सेसाणं अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार यहाँ तं तु. पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे जैसा कहा है, वैसा जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सहस्रार कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति द्विकको ध्रुव करना चाहिए। १८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वणेचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार सब अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए। तथा सातादिककी मुख्यतासे सन्निकर्ष, आनत कल्पमें इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है, उस प्रकारका है। १८६. एकेन्द्रियोंमें सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, १. ता. श्रा० प्रत्योः णिमि.णि उच्चा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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