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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०--सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु० - उप०-थावर० - अथिरादिपंच० - णीचा०- पंचंत० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पजत्त-पत्ते-णिमि० णिय० अणंत०हीणं० । आदाउज्जो० सिया० अणंत०हीणं०। एवमेदाओ तं तु. पदिदाओ ऍकमकस्स । तं तु० । १८३. असंप० उ० वं० हेहा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णवरि णि० अर्णतगुणहीणं० । [णाम० सत्थाणभंगो । णवरि] अप्पस०-दुस्सर० णिय० । तं तु० । सेसं देवोघं । १८४. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति पढमपुढविभंगो । आणद याव णवगेवज्जा त्ति आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०हुंड०-असंप० अप्पसत्थ०४-उप०अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि० । तं तु० । मणुस०-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-ओरालिअंगो०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३पसत्थवि०-तस०४-णिमि० णि० अणंतगुणही० । एवमेदाओ ऍक्कमेकॅस्स तं तु । असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार यहाँ जितनी तं तु पतित प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे परस्पर उसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए,जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहा है। १८३. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और आगेकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन बन्ध करता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्त वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुस्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। १८४. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, तीन शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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