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________________ १२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिमि० णि । तं० तु. छहाणपदिदं। अप्पसत्थ०४-उप० णि० अणंतगुणहीणं । एवं पसत्थाणं सव्वाणं मणुसगदीए सह ऍक्कमेकॅस्स । तं तु० छहाणपदिदं । बीइंदियजादि० जोणिणिभंगो। तीइंदि०-चदुरिंदि० ओघं।। २५. णग्गोद० उ० बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०. पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-अप्पसत्थवि०-तस०४-दूभग-दुस्सर-अणादें-णिमि० णि. अणंतगुणहीणं० । तिरिक्ख०-मणुस०-चदुसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभजस-अजस० सिया अणंतगुणहीणं० । एवं सादि० । णवरि तिण्णिसंघ० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं खुजसंठा। गवरि दोसंघ० सिया० अर्णतगुणहीणं । एवं वामण । णवरि असंपत्तसे० णिय० अणंतगुणहीणं । यथा संठाणं तथा संघडणं । असंप० बीइंदियभंगो। आदाउज्जो. पंचिंदियतिरिक्खभंगो। प्रशस्त वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंका मनुष्यगतिके साथ परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु उनका परस्पर उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । द्वीन्द्रियजाति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार तिर्यञ्चयोनिनीके कह आये हैं,उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। २५. न्यग्रोधसंस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीवपश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् न्यग्रोधसंस्थानके समान स्वातिसंस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह तीन संहननोंका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार कुन्जक संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह दो संहननोंका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार वामन संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। यहाँ संस्थानोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है, उसी प्रकार संहननोंको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मात्र असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष द्वीन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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