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________________ बंधसण्णियासपरूवणा इत्थि०-अरदि-सोग-भय-दु० णिय० । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । पुरिस०-हस्स-रदि ओघं । तिरिक्वग० उ० बं० वामण०-वीलि०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अप्पसत्य-अथिरादिछ० णि० । तं तु०। पंचिंदियादि० णिय० अणंतगु० । उज्जोवं सिया० अणंतगु० । सेसं ओघं । असण्णी० तिरिक्खोघं । णवरि मोह० मणुसअपज्जत्तभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो।। एवं उकस्सओ सण्णियासो समत्तो । ६३. जहण्णए पगदं । दुर्वि०-ओघे० आदे० । ओघे० आभिणिबोधियणाणावरणस्स जहण्णय अणुभागं बंधतो चदुणाणाव. णिय० वं० । णिय. जह० । एवमण्णमण्णस्स जहण्णा। एवं पंचण्णं अंतराइयाणं । णिहाणिद्दा० जह० अणु० २० पचलापचला-धीणगि० णिय० बं० । तं तु० छहाणप० । अणंतभागब्भहि०५। छदसणा० क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पन्द्रह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमेंसे किसी एक प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनु. भागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पुरुषवेद, हास्य और रतिका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव वामन संस्थान, कीलक संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पश्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। शेष भङ्ग ओघके समान है। असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्मका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ६३. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानाचरणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका जवन्य अनुभागबन्धके साथ सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँच अन्तरायका सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है। यदि अजघन्य होता है तो छह स्थान पतित वृद्धिको लिये हुए होता है । या तो अनन्तभागवृद्धिरूप होता है या असंख्यातभागवृद्धि आदि पाँच वृद्धिरूप होता है। छह दर्शनावरणका नियमसे बन्ध १. ता. प्रतौ जह• दुवि० इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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