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________________ २८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिय. अणंतगुणब्भहि० । एवं पचलापचला-थीणगिद्धि । णिद्दाए जह० बं० पचला. णियः । तं तु० छहाण। चदुदंसणा० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं पचला। चक्खुदं० ज० बं० तिण्णिदंस० णि. बं० । णि० जहण्णा । एवं तिण्णिदंस० । सादा० जह० वं. असादस्स अवं० । एवं असाद० । एवं चदुआउ०-दोगो०। ६४. मिच्छ० जह० वं० अणंताणु०४ णि० । तं तु० । वारसक० --पुरिस०हस्स-रदि-भय-दु० णिय० अणंतगुणब्भ० । एवं अणंताणु०४ । अप्पचक्खाणकोध० ज० बं० तिण्णिकसा० णिय० । तं तु० । अहक०-पंचणोक० णिय० अणंतगुणब्भ०। एवं तिण्णिक० । पञ्चक्खाणकोध० ज० बं० तिण्णिक० णिय० । तं तु० । चदुसंज०-- पंचणोक० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं तिण्णं क० । कोधसंज० ज० बं० तिण्णिसंज० णि. अणंतगु० । माणसंज० ज. बं. दोण्णं संज. णिय० अणंतगुणब्भ० । करता है जो अनन्तगुणवृद्धिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। निद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है । यदि अजघन्य होता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चक्षुदर्शनावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। इसी प्रकार तीन दर्शनावरणकी मुख्यतासे जानना चाहिए। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीयका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार असातावेदनीयकी अपेक्षा जानना चाहिए। इसी प्रकार चार गोत्रके सम्बन्धमें जानना चाहिए। ६४. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति. भय और जगप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणी वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आठ कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार संज्वलन और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शेष तीन प्रत्याख्यानावरण कपायोंकी मख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप हाता १. ता. श्रा० प्रत्योः छट्ठाण । चदुसंज० णिय अणंतगुणभ० । एवं इति पाठः । २. ता० श्रा. प्रत्योः तिण्णिसंज.णि अणंतगु०माणसंज० ज० बं० तिण्णिसंज.णिय. अयंतगुनमाणसंज. इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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