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बंधसणिया सपरूवणा
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मायसंज० ज० बं० लोभसंज० णिय० अनंतगुणन्भ० । लोभसंज० ज० बं० सेसाणं अबंध० ० । इत्थि० ज० बं० मिच्छ० - सोलसक० -भय-दुगुं० णिय० अनंतगुणब्भ० । हस्स - रदि० - अरदि -- सोग० सिया अनंतगुणन्भ० । एवं णवुंस० । पुरिस० ज० बं० चदुसंज० णिय० अनंतगुणब्भ० । हस्स० ज० बं० चदुसंज० - पुरिस णिय० अणंतगुणब्भ० । रदि-भय-दुगुं० णिय० । तं तु० । एवं रदि-भय-दुर्गं ० । अरदि० ज० बं० चदुसंज० -- पुरिस०--भय-दु० णिय० अनंतगुणब्भ० । सोग० निय० । तं तु० । एवं सोग० ।
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६५. णिरयगदि ज० बं० पंचिंदि० - वेडव्वि० - तेजा० क० वेडव्वि ० अंगो०पसत्थापसत्थवण्ण०४ - अगु०४-तस०४ - णिमि० णिय० अनंतगुणन्भ० । हुंड०-णिरयाणुपु० - अप्पसत्थ० -अथिरादिक० निय० । तं तु० । एवं णिरयाणु० । तिरिक्ख ० ज० बं० पंचिंदि ० - ओरालि० - तेजा० क० - समचदु० -ओरालि० अंगो० वज्जरि०-पसत्था
। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनवाला जीव दो संज्वलनोंका नियमसे बन्ध करता अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । मायासंज्वलन के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव लोभसंज्वलनका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । लोभसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष संज्वलनोंका प्रबन्धक होता है । स्त्रीवेद के जघन्य अनुभाग IT बन्ध करनेवाला जीव मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हास्य, रति, अरति और शांकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्ातासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदसे जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हास्य के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । रति, भय और जुगुप्सा का नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। शोकका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६५. नरकगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पच ेन्द्रिय जाति, वैकिथिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि जघन्य अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, सम१. श्रा० प्रतो एवं रदीए भयदु० इति पाठः ।
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