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________________ ३० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०--णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्खाणु० णि । तं तु० । उज्जो० सिया० अणंतगुणभः । एवं तिरिक्खाणु० । मणुसगदि० ज० बं० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४ अगु०-उप०-तस०-बादर०-पत्ते-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ । छस्संठा०-छस्संघ०दोविहा०-अपज्ज-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० लहाणपदिदं० । मणुसाणु० णि । तं तु० । पर०-उस्सा०-पज्ज. सिया० अणंतगुणब्भः । एवं मणुसाणु । देवगदि०-ज० बं० पंचिंदि०---वेउव्वि०- तेजा०--क०--बेउवि०अंगो०.-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४तस०४-णिमि० णिय. अणंतगुणभ० । समचदु०--देवाणु०--पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआर्दै णिय० । तं तु.। थिराथिर-सुभासुभ--जस०- अजस० सिया० । तं तु० । एवं देवाणु० । चतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रप्स, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियम ते बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, अपर्याप्त और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। परघात, उच्छ्वास और पर्याप्तका कदाचित वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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