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________________ प्रशस्ति जितचेतोजातनुर्वीश्वरमकुटतटोघृष्टपादारविन्दद्वितयं वाक्कामिनीपीवरकुचकलशालकृतोदारहार-। प्रतिमं दुर्दोरसंसृत्यतुलविपिनदावानलं माघनन्दिव्रतिनाथं शारदाभ्रोज्ज्वलविशदयशो राजिताशान्तकान्तम् ॥१॥ भावभवविजयिवरवाग्देवीमुखदर्पणनानम्नावनिपालकनेसेदनिलाविश्नुतकित्ते माघनन्दिमुनीन्द्रम् ॥२॥ वरराद्धान्ताम्भोनिधितरलतरङ्गोत्करक्षालितान्तःकरणं श्रीमेघचन्द्रव्रतिपतिपदपङ्केरुहासक्तषट्-। चरणं तीव्रप्रतापोधृतविततबलोपेतपुष्पेषु मृत्संहरणं सैद्धान्तिकाग्रेसरनेने नेकळ्दं माघनन्दिव्रतीन्द्रम् ॥३॥ महनीयगुणनिधानं सहजोन्नतबुद्धिविनयनिधियेने नेगळ्दम्। महिविनुतकिन्ते कित्तितमहिमानं मानिताभिमानं सेनम् ॥४॥ विनयद शीलदो गुणदगाळिय पेंपिनपुड्डिजमनोजनरति रूपिनोळ्पनिळिसिर्द-मनोहरमप्पुदोन्दु रू-। पिन मने दानदागरमेनिप्प वधूत्तमेयप्प सन्दसेनन सति मल्लिकव्वेगे धरित्रियोळार दोरे सद्गुणङ्गळिम् ॥५॥ सकलधरित्रीविनुतप्रकटितधीयसे मल्लिकव्वे बरेसि सत्पु ण्याकरमहाबन्धद पुस्तकं श्रीमाघनन्दिमुनिगळिगित्तळ ॥६॥ -जिन्होंने मन्मथ को जीत लिया है, जिनके दोनों पादकमलों को राजाओं के मुकुट के अग्रभाग चूमते हैं, जो सरस्वती के पीवर स्तनकलशों से अलंकृत मनोहर हार के समान हैं, जो दुर्निवार संसाररूपी विपुल कानन के लिए दावानलस्वरूप हैं, ऐसे माघनन्दिव्रतिपति शरत्कालीन मेघ के समान दिगन्तव्याप्त उज्ज्वल यश से विराजमान हैं ॥१॥ मन्मथविजयी, सरस्वती-मुख के लिए दर्पणरूप और पृथ्वीविश्रुतिकीर्ति माघनन्दि मुनीन्द्र पृथ्वीपालक हैं ॥२॥ जो श्रेष्ठ सिद्धान्तरूपी समुद्र की तरल तरंगों से प्रक्षालित अन्तःकरणवाला है, जो श्री मेघचन्द्र व्रतिपति के पादकमलों में आसक्त भ्रमर के समान है, जो तीव्र प्रतापी है, जिसने अपने विपुलबल से मन्मथ को जीत लिया है ऐसा माघनन्दि व्रतीन्द्र सैद्धान्तिकाग्रेसर के नाम से प्रख्यात था ॥३॥ जो महनीय गुणों का आकर है, जो सहज और उन्नत बुद्धि तथा विनय का निधिस्वरूप है, पृथिवी में जिसकी कीर्ति वन्दनीय है, जिसकी महिमा विख्यात है और जिसका मान-सम्मान है वह सेन प्रसिद्ध है ॥४॥ पृथ्वी में सद्गुणों में विनययुक्त, शीलवती, रति के समान मनोहर रूपवती और दानशूर ऐसी सन्दसेन की भार्या मल्लिकव्वे के समान कौन है ॥५॥ सकल पृथ्वीमण्डल द्वारा विनुत तथा प्रख्यातबुद्धि और यशवाली मल्लिकव्वे ने पुण्याकर महाबन्ध पुस्तक लिखवाकर माघनन्दि मुनीन्द्र को भेंट की ॥६॥ यह प्रशस्ति अनुभागबन्ध के अन्त में उपलब्ध होती है। स्थितिबन्ध के अन्त में भी एक प्रशस्ति आयी है। गुणभद्रसूरि के उल्लेख को छोड़कर इस प्रशस्ति में वही बात कही गयी है जिसका निर्देश स्थितिबन्ध के अन्त में पाई जानेवाली प्रशस्ति में किया गया है। मात्र इसमें मेघचन्द्र व्रतपति का विशेष रूप से उल्लेख किया है और माघनन्दि व्रतपति को इनके पादकमलों में आसक्त बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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