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फोसणपरूवणा
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३६२. कायजोगि० - कोधादि ०४ - अचक्खु ० - भवसि ० - आहारए ति ओघभंगो । ओरालि० खइगाणं उ० मणुसभंगो ० सेसाणं च उ० अणु० तिरिक्खोघं । ओरालियमि० पंचणा ० - णवदंसणा ० असादा०-मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० - एइंदि०हुंड० -- अप्पसत्य०४ - तिरिक्खाणु०[०-- उप० - थावरादि४ - अथिरादिपंच०-- णीचा ० - पंचंत० उ० लो० असंखें० सव्वलो०, अणु० सव्वलो० । सेसाणं' उ० खेत ०, अणु० सव्वलो ० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं ।
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३६३. वेडव्वि० पंचणा०-णवदंस० असादा०-मिच्छ०- सोलसक० - सत्तणोक ०तिरि० - हुंडे ० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० -उप ० -अथिरादिपंच० - णीचा ० - पंचंत० उ० अणु ० अह-तेरह ० | सादा०-- रा० - तेजा ० क ० - पसत्थ०४ - अगु०३ - बादर - पज्जत - पत्ते ० थिरादितिण्णि - णिमि० उ० अट्ठचों०, अणु० अट्ठ-तेरह ० । इत्थि० - पुरिस० - चदुसंठा ० समुद्घात करते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बढे चौदह राजू प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
३६२. काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवों में क्षायिक प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यखों के समान है ।
विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और ये जीव सब लोकमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं, इसलिए यह स्पर्शन सर्व लोक प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३६३. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि तीन और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे १. श्रा० प्रतौ लो० श्रसंखे० सव्वलो० सेसाणं इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः तिरि० एइंदि० हुंड० इति पाठः ।
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