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________________ महाधे अणुभागबंधाहियारे ३८६. पुढवि -- श्राउ० पंचणा०--णवदंस०-- मिच्छ० - सोलसक० -- णवणोक० - ओरा ० अंगो० ० - अप्पसत्य ० ४ - उप० - आदाव० पंचंत० ज० लो० सं०, अज० सव्वलो ० । १६४ विशेषार्थ — जो पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिए यह क्षेत्र के समान कहा है। तथा इनका स्वस्थान विहारादिके समय और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण कहा है। आगे जहाँ भी कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह इस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। स्त्रीवेद आदिका स्वस्थान विहारादिके समय तथा नीचे छह व ऊपर छह इस प्रकार मारणान्तिक समुद्घात द्वारा कुछ कम बारह राजूका स्पर्शन करते समय जघन्य व अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों के स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूका खुलासा पहले कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी व आगे भी जानना चाहिए । तिर्यखायु, मनुष्यायु व तीर्थङ्कर प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थान विहारादिके समय सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे प्रमाण कहा है। यद्यपि तीर्थङ्कर प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुके समय भी होता है, पर इस कारण स्पर्शन में अन्तर नहीं पड़ता । मनुष्यगति आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी नरकगतिद्विकका जघन्य व अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण कहा है। जो सहस्रार कल्पतक देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध होता है और इनमें व इनसे ऊपरके देवों में भी मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोंके इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, अतः इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । विहारादिके समय तथा नीचे छह राजू और ऊपर सात राजू कुल कुछ कम तेरह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके औदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिये इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ कुछ कम तेरह बटे राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार उद्योत आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । स्वस्थानमें व एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी सूक्ष्म आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, अत: इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। शेष जो स्पर्शन स्पष्ट नहीं किया है, उसे पूर्वापर देखकर व स्वामित्व देखकर समझ लेना चाहिए । यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह स्पर्शन अविकल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें पञ्चन्द्रियद्विकके समान कहा है । ३८६. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, आतप और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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