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महाबंध अणुभागबंधाहियारे क०-हुंड०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-तस०४-अथिरादिपंच-णिमि० णिय० अणंतगु० । बे० सिया० तं तु० । पंचिं०-पर०-उस्सा०-उज्जो०अप्पस०-पज्जत्तापज्ज०-दुस्सर० सिया० अणंतगुण । तिरिक्ख-मणुसिणीओ बेइंदियसंजुतं संकिलेस्सं ति । आदाउज्जो० देवोघं।
४६. चदुसंठा०-चदुसंघ०--अप्पसत्थ०--दुस्सर० ओघं । मुहुम० उ० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थ०४--तिरिक्खाणु०-अगु०उप०-थावर-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । अपज्जत्त-साधार० णिय० । तं तु० । एवं अपज्जत-साधार० ।
५०. पुरिसेसु ओघं ।
५१. णqसगे सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदि० उ० बं० पंचिंदियादिपगदीओ सव्वाओ ओघं । हुंड-अप्पसत्थवण्ण०४--णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ. णिय० । तं तु० । एवं णिरयाणुपु० । ननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग,प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, सचतुष्क, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। द्वीन्द्रिय जातिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो उत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुबन्ध करता है,तो वह नियमसे छह स्थानपतित हानिरूप होता है । पञ्चन्द्रियजाति. परघात, उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । तिर्यञ्चयोनिनी
और मनुष्यनी संक्लेश परिणामयुक्त द्वीन्द्रिय जातिका बन्ध करती है । आतप और उद्योतका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
४६. चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका भङ्ग ओघके समान है। सूक्ष्म प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, अपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । अपर्याप्त और साधारण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५०. पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
५१. नपुंसकवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पञ्चन्द्रिय जाति आदि सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। वह हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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