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________________ २१ बंधसणियासपरूवणा पसत्थ०४-अगु०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । एवं अपज०-साधार० । सेसं ओघं । तिरिक्व०-मणुस० एइंदि० सुहुम०-अपज्जत्त०-साधारणसंजुत्तसंकिलेस्स गेरइय० पंचिंदियसंजुत्तसंकिलेस्स ति । ४६. इत्थिवेदेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयग० उ० ०' पंचिंदियादिपसत्थाओ ओघं । हुंड-अप्पसत्थ०४--णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु० । एवं णिरयाणु०-अप्पसत्थवि०-दुस्सर० । ४७. तिरिक्व० उ० बं० एइंदि० हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०थावर०-अथिरादिपंच० गिय० । तं तु० । ओरालियादिपगदीओ देवोघं । एवं एइंदि०-[हुंड०-अप्पसत्थ०४-]तिरिक्वाणु-उप०-]थावर०-[अथिरादिपंच०] । तिण्णि जादि० पंचिं०तिरिक्खजोणिणिभंगो। ४८. सेसाणं पगदीणं ओघ । णवरि असंप० उ०० तिरिक्व०-ओरालि०-तेजा०अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् सूक्ष्म प्रकृतिके समान अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष ओघके समान है। तिर्यञ्च और मनुष्य जीव सूक्ष्म, अपर्यात और साधारण संयुक्त संक्लेश परिणामोंसे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं और पञ्चन्द्रिय जाति संयुक्त संक्लेश परिणामोंसे नरकगतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। ४६. स्त्रीवेदी जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग ओघ के समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। वह हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानि को लिये हुए होता है । इसी प्रकार अर्थात् नरकगतिके समान नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायो। गति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। ४७. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपधात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये । औदारिक शरीर आदि प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जिस प्रकार सामान्य देवोंमें कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि ५ की मुख्यतासे सत्रिकर्ष जानना चाहिए। तीन जातिकी मुख्यता से सन्निकर्ष पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनीके जिस प्रकार कह आये हैं,उस प्रकार है। ४८. शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असम्प्राप्तामृपाटिका संह१. ता० प्रती श्रोघं । उ० ब० इति पाठः । हए ह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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